
अज्झवसाणविसुद्धीए वज्जिदा जे तवं विगट्ठंपि ।
कुव्वंति बहिल्लेस्सा ण होइ सा केवला सुद्धी॥262॥
जो विशुद्ध परिणाम रहित हों तप उत्कृष्ट करें फिर भी ।
पूजादिक में चित्त रमे निर्दाेष शुद्धि नहिं हो उनकी॥262॥
अन्वयार्थ : जो साधु अध्यवसान परिणाम की विशुद्धता से रहित उत्कृष्ट तप भी करते हैं, वे भी बाह्य पूजा-सत्कारादि में स्थापी , लगाई है चित्त की वृत्ति जिनने, ऐसे होने पर भी केवलशुद्धि को प्राप्त नहीं होते, उनके दोषों से मिली हुई शुद्धता होती है ।
सदासुखदासजी