
अविगठ्ठं पि तवं जो करेइ सुविसुद्धसुक्कलेस्साओ ।
अज्झवसाणविशुद्धो सो पावदि केवला सुद्धिं॥263॥
जो विशुद्ध शुक्ल लेश्यामय हो विशुद्ध परिणाम सहित ।
अनुत्कृष्ट तप करता फिर भी वह पाता केवल शुद्धि॥263॥
अन्वयार्थ : परिणामों की उज्ज्वलता सहित ऐसे जो बहुत परम शुक्ल लेश्या के धारक साधु के अनुत्कृष्ट तप करते हुए भी केवल शुद्धता को प्राप्त होते हैं । भावार्थ - जिनके परिणाम कषाय एवं रागादि मल से रहित हैं, वे अल्प तप करते हुए भी आत्मा की दोष रहित शुद्धि को प्राप्त होते हैं/करते हैं । यहाँ शरीर सल्लेखना का वर्णन करके अब कषाय सल्लेखना का वर्णन करते हैं-
सदासुखदासजी