
तं वत्थुं मोत्तव्वं जं पडि उप्पज्जदे कसायग्गि ।
तं वत्थुमल्लिएज्जो जत्थोवसमो कसायाणं॥267॥
जिसके प्रति कषाय-अग्नि हो वही वस्तु है तजने योग्य ।
जिससे हो कषाय का उपशम वही वस्तु अपनाने योग्य॥267॥
अन्वयार्थ : जिससे कषायरूप अग्नि उत्पन्न हो, उस वस्तु का ही त्याग करना योग्य है और जिस वस्तु से कषायों का उपशमन हो जाये, उसका संचय करना योग्य है ।
सदासुखदासजी