
तम्हा हु कसायग्गी पावं उपज्जामाणयं चेव ।
इच्छामिच्छादुक्कडवंदणसलिलेण विज्झाहि॥272॥
पापरूप कषायाग्नि उत्पत्ति समय ही करो प्रशान्त ।
आज्ञा-इच्छा1 दुष्कृत मिथ्या2, वन्दन-जल से होती शान्त॥272॥
अन्वयार्थ : खोटे वचन की प्रेरणा को नहीं सह सकता, वही है पवन, उसके द्वारा क्षोभ को प्राप्त हुआ और प्रतिवचन/सामने जवाब देने रूप ईंधन से बढी हुई प्रचंड कषाय रूपी अग्नि शीघ्र ही प्रज्वलित होती है । इस कारण कषाय को अग्नि कहा है और अग्नि पवन से सुलगती है । यहाँ दुष्टता के वचनों को नहीं सहना, वही कषायरूपी अग्नि को जलाने के लिए हवा है; और अग्नि ईंधन से बढती है, तैसे ही कषाय अग्नि परस्पर के वचनों के उत्तर-प्रत्युत्तरों से बढती है । ऐसी प्रज्वलित हुई कषाय अग्नि-समस्त चारित्ररूप साधन का विनाश करके इस जीव को अनंत संसार में परिभ्रमण कराती है/परिभ्रमण करने में मग्न रखती है । इसलिए पापरूप जो कषाय अग्नि, उसे उत्पन्न होते ही इच्छाकार/मिथ्याकार तथा वंदनारूप जल से, शीघ्र ही बुझाना श्रेष्ठ है । अत: जिसे कषाय बंद/शांत करना है, वह यथायोग्य इच्छाकार आदि करके कषाय का उपशम करता है ।
सदासुखदासजी