
परिवड्ढिदोवधाणो विगडसिराण्हारुपासुलिकडाहो ।
सल्लिहिदतणुसरीरो अज्झप्परदो हवदि णिच्चं॥274॥
नियमों में परिवर्धन करता हड्डी सिरा1 दिखे स्पष्ट ।
तन को कृश करनेवाला यति आत्मध्यान में रहता मस्त॥274॥
अन्वयार्थ : सल्लेखना करने वाला कैसा है? वृद्धिंगत है नियम त्याग जिनका और तप से प्रगट हुआ है नसां पसवाडा का हाड/पडखे का हाड, नेत्रों का कटाक्ष स्थान जिनका और अच्छी तरह कृश किया है शरीर जिनने, ऐसे ही शाश्वत आत्मध्यान में लीन रहते हैं ।
सदासुखदासजी