अव्वोच्छित्तिणिमित्तं सव्वगुणसमोयरं तयं णच्चा ।
अणुजाणेदि दिसं सो एस दिसा वोत्ति बोधित्ता॥280॥
अव्युच्छित्ति1 हेतु कहें शिष्यों से अब ये हैं आचार्य ।
आप करें अब गण का पालन करें अनुज्ञा यह आचार्य॥280॥
अन्वयार्थ : संघ के पालन/रत्नत्रय की रक्षा के लिये, स्वयं के समान गुणों के धारक जो साधु, उनसे अल्प वचनालाप/थोडे शब्दों में कहकर संघ को अर्पण करते हैं ।
किस प्रयोजनार्थ क्या करते हैं? वह कहते हैं - धर्मतीर्थ की व्युच्छित्ति के अभाव के लिये सर्व गुण संयुक्त आचार्य पदवी के योग्य जानकर, सम्पूर्ण संघ को आज्ञा करते हैं कि
अब तुम सभी के आचार्य ये हैं - ऐसा कहते हैं ।

  सदासुखदासजी