जं दीहकालसंवासदाए ममकारणेहरागेण ।
कडुगपरुसं च भणिया तमहं सव्वं खमावेमि॥282॥
दीर्घकाल सहवास समय में राग-द्वेष या ममता से ।
कटु-कठोर जो वचन कहे मैं क्षमा माँगता हूँ सबसे॥282॥
अन्वयार्थ : हे मुनीश्वर! संघ में अधिक समय तक रहने से अथवा ममत्व, स्नेह, राग करके मैंने जो कटुक भाषण किया हो तथा कुछ कठोर कहा हो तो सर्व संघ मुझे क्षमा करें ।

  सदासुखदासजी