णिद्धमहुरगंभीरं गाहुगपल्हादणिज्जापत्थं च ।
अणुसिट्ठिं देइ तहि गणाहिवइणो गणस्स वि य॥285॥
स्नेह सहित, माधुर्य-सारयुत बोधगम्य आनन्दकारी ।
गण अरु गण-अधिपति को दें आचार्य प्रवर शिक्षा गम्भीर॥285॥
अन्वयार्थ : अब आचार्य सर्व संघ के लिये अपने समान संघ में स्थापन किये गये नवीन आचार्य को शिक्षा करते हैं । कैसी है वह शिक्षा? धर्मानुराग से भरी हुई हैऔर कर्ण को मिष्ट लगे, सार/अर्थ से भरी हुई है; अत: गंभीर है । जो सुख को जानने वाली और सुखपूर्वक ग्रहण हो जाये, चित्त को आनंद बढाने वाली, परिपाक काल में हितरूप, इसलिए पथ्य है । ऐसी शिक्षा नवीन आचार्य को तथा संघ के सर्व मुनीश्वरों को देते हैं ।

  सदासुखदासजी