वढ्ढंतओ विहारो दंसणणाणचरणेसु कायव्वो ।
कप्पाकप्पठिदाणं सव्वेसिमणागदे मग्गे॥286॥
दर्शन-ज्ञान-चरण पथ में सब वर्धमान हो करें विहार ।
प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्ग में हैं जो गृही1 और मुनिराज॥286॥

  सदासुखदासजी