
संखित्ता वि य पवहे जह वचइ वित्थरेण वढढंती ।
उदधिं तेण वरणदी तह गुणसीलेहिं वड्ढाहि॥287॥
यथा नदी उद्गम स्थल में छोटी रहती है फिर भी ।
बढ़ते-बढ़ते मिले सिन्धु में, वैसे बढ़ें शील गुण भी॥287॥
अन्वयार्थ : हे मुनियो! दर्शन, ज्ञान, चारित्र में प्रवृत्तिमार्ग और निवृत्ति/त्याग के मार्ग में आगामी काल में जैसे दर्शन, ज्ञान, चारित्र, बढता जाये एवं संयम-तप में प्रवृत्ति दिन-प्रतिदिन बढती जाये और मिथ्या दर्शन, असंयम, इन्द्रिय, विषय-कषाय के परिणाम निवृत्तिरूप प्रतिदिन होते जायें, ऐसे प्रवर्तन करना योग्य है । जैसे श्रेष्ठ/बडी नदी अपने उत्पत्ति स्थान में से तो अल्प/पतली बहने पर भी आगे समुद्र पर्यन्त बढती हुई विस्तार रूप होती चली जाती है; वैसे ही तुम्हारे/साधु के थोडे से ग्रहण किये गये व्रत, शील, गुण भी मरणपर्यंत जैसे बढते जायें, तैसे प्रवर्तन करना योग्य है ।
सदासुखदासजी