
मज्जाररसिदसरिसोवमं तुमं मा हु काहिसि विहारं ।
मा णासेहिसि दोण्णि वि अप्पाणं चेव गच्छं च॥288॥
प्रथम तीव्र फिर मन्द आचरण तुम विलाव-सम मत करना ।
हो विनाश अपना अरु गण का अति कठोर नहिं आचरना॥288॥
अन्वयार्थ : भो साधो! जैसे मार्जार/बिल्ली का शब्द पहले अति तीव्र, बाद में क्रमश: मंद होता जाता है तथा सुनने वाले को बहुत बुरा लगता है, तैसे ही रत्नत्रय में प्रवृत्ति पहले अतिशय वाली लगे, बाद में क्रमश: मंद हो जाये या जगत में निंद्य हो जाये - ऐसा प्रवर्तन तुम्हें नहीं करना है । इस प्रकार प्रवृत्ति करके अपना या संघ का अथवा दोनों का नाश नहीं करना ।
सदासुखदासजी