
जो सघरं पि पलित्तं णेच्छदि विज्झविदुमलसदोसेण ।
किह सो सद्दहिदव्वो परघरदाहं पसामेदुं॥289॥
जो प्रमादवश अपने जलते घर को भी न बचाता है ।
वह बचाए जलते पर-घर को यह विश्वास करें कैसे॥289॥
अन्वयार्थ : जो पुरुष जलते हुए अपने घर को आलस्य के दोष से बुझाने की वांछा नहीं करता, वह दूसरों के जलते हुए घर को बुझाने का प्रयत्न करेगा, ऐसा श्रद्धान कैसे किया जा सकता है? अत: भो संघाधिपते! तुम्हें ऐसा प्रवर्तना योग्य है, इस तरह कहते हैं ।
सदासुखदासजी