
वज्जेहि चयणकप्पं सगपरपक्खे तहा विरोधं च ।
वादं असमाहिकरं विसग्गिभूदे कसाए य॥290॥
टालो सब अतिचार स्व-पर मतवालों से न विरोध करो ।
चित अशान्तकारक विवाद अरु विषसम सभी कषाय तजो॥290॥
अन्वयार्थ : भो मुने! दर्शन-ज्ञान-चारित्र में अतिचार लग जाये तो उसे दूर करना योग्य है और स्व-पक्ष/धर्मात्मा जन और पर-पक्ष/मिथ्यादृष्टि जन के साथ विरोध का त्याग करना योग्य है तथा जिससे परिणामों की सावधानी/वीतरागता छूट जाये - ऐसे विवाद को त्यागना योग्य है । विष-समान व अग्नि-समान कषाय का त्याग करना योग्य है । क्रोधादि कषायें अपने को और पर को मारने के लिए विष रूप हैं तथा अपने और पर के हृदय में दाह उपजाने के लिए अग्नि-समान हैं । इसलिए कषाय का वर्जन करना ही योग्य है/श्रेष्ठ है ।
सदासुखदासजी