
णाणम्मि दंसणम्मि य चरणम्मि य तीसु समयसारेसु ।
चाएदि जो ठवेदुं गणमप्पाणं गणधरो सो॥292॥
आगम के जो सारभूत हैं दर्शन-ज्ञान-चरण पथ में ।
निज को अरु गण को धरने में जो समर्थ वह गणधर है॥292॥
अन्वयार्थ : सिद्धांत के सारभूत ज्ञान, दर्शन, चारित्र - इन तीनों में अपने को और गण को स्थापित करने में जो समर्थ हैं, वे गण को धारण-पालन करनेवाले गणधर अर्थात् आचार्य हैं ।
सदासुखदासजी