
एसा गणधरमेरा आयारत्थाण वण्णिया सुत्ते ।
लोगसुहाणुरदाणं अप्पच्छंदो जहिच्छाए॥295॥
यह गणधर मर्यादा कही सूत्र में जो पालें आचार ।
वही गणी हैं, जग सुख वांछक यति कहलाते स्वेच्छाचार॥295॥
अन्वयार्थ : यथोक्त आचार में तिष्ठते साधु को भगवान के सूत्र में यह मर्यादा गणधर देव ने कही है और जो लौकिक सुख में आसक्त हैं, वे अपनी इच्छानुसार आत्मच्छन्द हैं, उनके स्वेच्छाचारीपना है । जिनको मिष्ट भोजन में आसक्ति, कोमल शय्या, कोमल आसन पर शयन करना, बैठना तथा मनोज्ञ वसतिका में बसना रुचता है - ऐसे विषयों के रागी को गणधर के सूत्र की मर्यादा नहीं रहती है - सूत्र बाह्य स्वेच्छाचारी भ्रष्ट हैं ।
सदासुखदासजी