
सीदावेइ विहारं सुहसीलगुणेहिं जो अबुद्धीओ ।
सो णवरि लिंगधारी संजमसारेण णिस्सारो॥296॥
जो सुखशील गुणों के कारण, रत्नत्रय में वर्ते मन्द ।
वह मतिहीन व्यर्थ लिंगधारी संयम शून्य रहे स्वच्छन्द॥296॥
अन्वयार्थ : जो बुद्धिरहित साधु सुखिया स्वभावरूप गुणों के कारण चारित्र में मंद प्रवृत्ति करता है, वह साधु केवल लिंगधारी है और इन्द्रिय-संयम और प्राणी-संयम रूप सार से रहित निस्सार है ।
सदासुखदासजी