
कुलगामणयररज्जं पयहिय तेसु कुणइ दु ममत्तिं जो ।
सो णवरि लिंगधारी संजमसारेण णिस्सारो॥298॥
त्याग किया कुल ग्राम नगर अरु राज्य किन्तु ममता करता ।
संयम रहित, व्यर्थ लिंगधारी नहीं संयमी हो सकता॥298॥
अन्वयार्थ : जो कुल, ग्राम, नगर, राज्य को छोड साधु होकर फिर से नगर, राज्य, कुल, ग्राम में ममता करता है । यह मेरा राज्य है, मेरा कुल है, मेरा नगर है - ऐसी ममता करता है, वह केवल लिंगधारी/भेषधारी है, सारभूत संयम से रहित निस्सार है ।
सदासुखदासजी