अपरिस्सावी सम्मं समपासी होहि सव्वकज्जोसु ।
संरक्ख सचक्खुंपि व सबालउड्ढाउलं गच्छं॥299॥
दोष कहो न किसी से एवं सब में समदर्शीपन हो ।
बाल वृद्ध यतिगण की रक्षा चक्षु समान सदैव करो॥299॥
अन्वयार्थ : भो गण के पति! तुम अच्छी तरह से अपरिस्रावी होओ, जिससे कि सर्व ही साधु तुम्हें गुरु जानकर विश्वास करके अपने अपराध स्पष्टपने कह सकें । किसी भी समय अपने वचन से किसी का अपराध विख्यात/जाहिर मत करना । यही अपरिस्रावी गुण है । तथा सर्व संघ के कार्य में समदर्शी होना । बाल-वृद्धादि सहित जो यह मुनियों का संघ है, इसकी जैसे अपने नेत्रों की रक्षा करते हैं, वैसी ही रक्षा करना ।

  सदासुखदासजी