
कुणइ अपमादमावासएसु संजमतवोवधाणेसु ।
णिस्सारे माणुस्से दुल्लहबोहिं वियाणित्ता॥301॥
अशुचि अनित्य असार जन्म1 में बोधि-बुद्धि2 दुर्लभ जानो ।
संयम-तप के आश्रय आवश्यक उनमें न प्रमाद करो॥301॥
अन्वयार्थ : भो मुनीश्वर! विनाशीक और अशुचिपने के कारण साररहित इस मनुष्य जन्म में बोधि/रत्नत्रय का प्राप्त होना दुर्लभ जानकर षट् आवश्यक क्रियाओं में तथा संयम-तप विधान में प्रमाद मत करना/अप्रमादी रहना । पुन: संयम मिलना कठिन है ।
सदासुखदासजी