
सण्णाउ कसाए वि य अट्ठं रुद्दं च परिहरह णिच्चं ।
दुट्ठाणि इंदियाणि य जुत्ता सव्वप्पणा जिणह॥303॥
आर्त रौद्र दुर्ध्यान और संज्ञा-कषाय परिहार करो ।
ज्ञान और तप युक्त बनो निज शक्ति से इन्द्रिय जीतो॥303॥
अन्वयार्थ : आहार की वांछा, भय के कारणों से छिप जाने की इच्छा वह भय की वांछा; मैथुन की वांछा, परिग्रह की वांछा - ये चार संज्ञायें और क्रोध, मान, माया, लोभ - ये चार कषायें; चार प्रकार का आर्त्तध्यान तथा चार प्रकार का रौद्रध्यान । इनका नित्य ही परिहार करना तथा दुष्ट जो पाँच इन्द्रियाँ - इनको सर्व प्रकार से अपनी शक्ति से, ज्ञान से, तप से या शुभ भावना से युक्त होकर जीतना ।
सदासुखदासजी