सुस्सूसया गुरूणं चेदियभत्ता य विणयजुत्ता य ।
सज्झाए आउत्ता गुरुपवयणवच्छला होह॥305॥
गुरुओं की सेवा में तत्पर चैत्य1 भक्ति अरु विनय करो ।
स्वाध्याय में लीन रहो अरु गुरु प्रवचन वत्सलमय हो॥305॥
अन्वयार्थ : हे मुनियो! रत्नत्रयादि गुणों से महान गुरुओं के सेवन/उपासना में अनुरागी होना तथा चैत्य जो अरहंतादि के प्रतिबिम्ब, उनकी भक्ति को प्राप्त होना, सदा विनय युक्त होना, स्वाध्याय में निरंतर संलग्न रहो । गुरु अर्थात् त्रैलोक्य में महान, प्रवचन अर्थात् स्याद्वादरूप सर्वज्ञ का प्रकाशा हुआ परमागम, उसमें प्रीतिवंत होओ ।

  सदासुखदासजी