दुस्सहपरीसहेहिं य गामवचीकंटएहिं तिक्खेहिं ।
अभिभूदा वि हु संता मा धम्मधुरं पमुच्चेह॥306॥
दुःसह परिषह और तीक्ष्ण आक्रोश वचन कण्टक द्वारा ।
पीड़ित होकर भी तुम धर्म धुरा का भार नहीं तजना॥306॥
अन्वयार्थ : भो साधुजन! क्षुधादि दुस्सह बाईस परीषह और तीक्ष्ण ऐसे ग्राम्य/दुष्ट (प्राणी) उनके वचनरूप कंटक के द्वारा तिरस्कृत हुए, पीडित होने पर भी वीतरागतारूप धर्म की धुरा को मत छोडना ।

  सदासुखदासजी