तित्थयरो चदुणाणी सुरमहिदो सिज्झिदव्वयधुवम्मि ।
अणिगूहिदबलविरिओ तवोविधाणम्मि उज्जमदि॥307॥
चार ज्ञानधारी सुर-पूजित तीर्थंकर धु्रव1 सिद्धि लहें ।
वे भी निजबल नहीं छिपाते, तप में उद्यमवन्त रहें॥307॥
अन्वयार्थ : जिनकी सिद्धि निश्चित होनेवाली है तथा मति, श्रुत, अवधि तथा मन:पर्यय ज्ञान के धारी तथा गर्भ, जन्म, तप कल्याणकों में चार प्रकार के देवों द्वारा पूजे गये - ऐसे तीर्थंकर भी अपनी शक्ति को न छिपाते हुए जब तप के लिए उद्यम करते हैं तो अन्य साधुजनों को तप में उद्यम नहीं करना क्या? अपितु करना ही है ।

  सदासुखदासजी