+ वही कहते हैं - -
किं पुण अवसेसाणं दुक्खक्खयकारणाय साहूणं ।
होइ ण उज्जम्मिदव्वं सपच्चवायम्मि लोयम्मि॥308॥
तो फिर दुःखक्षय कारण तप को शेष साधु भी क्यों न करें ।
दुःखमय विनाशीक जग में क्यों तप में उद्यमवन्त न हो॥308॥
अन्वयार्थ : जिनकी सिद्धि निश्चित होनेवाली है, ऐसे तीर्थंकर भी जब तप के लिए उद्यम करते हैं तो अन्य साधु इस विनाशीक लोक में दु:ख का नाश करने के लिए तप का उद्यम नहीं करेंगे क्या? अपितु तप में उद्यमी होना ही श्रेष्ठ है ।

  सदासुखदासजी