तित्थयराणाकोधो सुदधम्मविराधणा अणायारो ।
अप्पापरोपवयणं च तेण णिज्जूहिदं होदि॥313॥
उनको जिन-आज्ञा प्रकोप, श्रुत कथित धर्म का होय विनाश ।
निज आत्मा अरु साधु वर्ग एवं आगम को हो परित्याग॥313॥
अन्वयार्थ : जो अपना बल-वीर्य बिना छिपाए जिनेन्द्र के उपदेश अनुसार वैयावृत्त्य नहीं करता, समर्थ होने पर भी साधुजनों की वैयावृत्त्य से परांगमुख होता है, वह धर्मरहित निधर्मी है, धर्म से बाहर है । जिसने पूज्य पुरुषों की वैयावृत्त्य नहीं की, उसने तीर्थंकर देव की आज्ञा भंग की तथा श्रुत द्वारा उपदिष्ट धर्म की विराधना की और वैयावृत्त्य नहीं करने से आचार बिगड जाने से अनाचार प्रगट किया । वैयावृत्त्य तप से परांगमुख हुआ तब आत्महित बिगड गया, अत: आत्मा को ही त्याग दिया तथा साधु का आपदा/दु:ख बीमारी में भी उपकार नहीं किया तो मुनि समूह का भी त्याग हो गया और श्रुत/शास्त्र की आज्ञा वैयावृत्त्य करने की थी, उसका लोप करने से प्रवचन परमागम का भी त्याग किया । इसप्रकार जिनके वैयावृत्त्य नहीं उनके एक भी धर्म नहीं रहा ।

  सदासुखदासजी