आणा संजमसाखिल्लदा य दाणं च अविदिगिंछा य ।
वेज्जावच्चस्स गुणा पभावणा कज्जपुण्णाणि॥315॥
आज्ञा-पालन हो प्रभावना, संयम-सहायता अरु दान ।
निर्विचिकित्सा, कार्य निर्वदन, ये वैयावृत के गुण जान॥315॥
अन्वयार्थ : वैयावृत्त्य करने से इतने गुण प्रगट होते हैं -
  1. साधुओं के गुणों में परिणाम/भाव,
  2. श्रद्धान,
  3. वात्सल्य,
  4. भक्ति,
  5. पात्रलाभ,
  • संधान/रत्नत्रय में जुडान,
  • तप,
  • पूजा,
  • धर्मतीर्थ की अव्युच्छित्ति,
  • समाधि,
  • तीर्थंकरों की आज्ञा धारण करना,
  • संयम की सहायता,
  • दान,
  • निर्विचिकित्सा
  • प्रभावना तथा
  • कार्य पूर्णता इतने गुण वैयावृत्त्य करने से प्रगट होते हैं ।
  • वे कैसे होते हैं ? अत: इन गुणों की उत्पत्ति अलग-अलग कहते हैं -

      सदासुखदासजी