
आणा संजमसाखिल्लदा य दाणं च अविदिगिंछा य ।
वेज्जावच्चस्स गुणा पभावणा कज्जपुण्णाणि॥315॥
आज्ञा-पालन हो प्रभावना, संयम-सहायता अरु दान ।
निर्विचिकित्सा, कार्य निर्वदन, ये वैयावृत के गुण जान॥315॥
अन्वयार्थ : वैयावृत्त्य करने से इतने गुण प्रगट होते हैं -
- साधुओं के गुणों में परिणाम/भाव,
- श्रद्धान,
- वात्सल्य,
- भक्ति,
- पात्रलाभ,
संधान/रत्नत्रय में जुडान, तप, पूजा, धर्मतीर्थ की अव्युच्छित्ति, समाधि, तीर्थंकरों की आज्ञा धारण करना, संयम की सहायता, दान, निर्विचिकित्सा प्रभावना तथा कार्य पूर्णता इतने गुण वैयावृत्त्य करने से प्रगट होते हैं ।
वे कैसे होते हैं ? अत: इन गुणों की उत्पत्ति अलग-अलग कहते हैं -
सदासुखदासजी