+ उनमें से गुणपरिणाम नामक गुण कैसे होता है, यह कहते हैं - -
मोहग्गिणादिमहदा घोरमहावेयणाए फुट्टंतो ।
डज्झदि हु धगधगंतो ससुरासुरमाणुसो लोओ॥316॥
एदम्मि णवरि मुणिणो णाणजलोवग्गहेण विज्झविदे ।
डाहुम्मुक्का होंति हु दमेण णिव्वेदणा चेव॥317॥
णिग्गहिदिंदियदारा समाहिदा समिदसव्वचेट्ठंगा ।
धण्णा णिरावयक्खा तवसा विधुणंति कम्मरयं॥318॥
इय दढगुणपरिणामो वेज्जावच्चं करेदि साहुस्स ।
वेज्जावच्चेण तदो गुणपरिणामो कदो होदि॥319॥
महामोह अंगारों द्वारा धधक रहे सुर-असुर-नृलोक ।
अंग-अंग सब टूट रहे हैं महावेदना छाई घोर॥316॥
जलते हुए लोक में भी मुनियों को नहीं वेदना है ।
अग्नि शमित है ज्ञान सुजल से दम2 से दाहमुक्त होते॥317॥
इन्द्रियनिग्रह, रत्नत्रयरति, अरु प्रवृत्ति सम्यक् धरते ।
पुण्यवन्त, निरपेक्ष रहें अरु तप से कर्मधूलि धोते॥318॥
इसप्रकार यतिवर के गुण में जिसका होता दृढ़ परिणाम ।
वह वैयावृत करता है जिससे होता है गुण परिणाम॥319॥
अन्वयार्थ : सर्व जीवों के ज्ञानादि गुणों को दग्ध करने से, जो मोहरूपी अग्नि वह सभी देव और मनुष्यलोक को दग्ध करती है । कैसा है लोक? चाह की दाहरूप घोर वेदना, उसके द्वारा प्रगट धगधगायमान हुआ जलता है । ऐसी मोहरूपी अग्नि से भस्म होता हुआ यह लोक, इसमें एक ये दिगम्बर मुनि ही हैं, जो ज्ञानरूप जल से मोह-अग्नि को बुझाकर और राग-द्वेषरूप आताप का दमन करके दाहरहित होते हुए वेदनारहित सुखी होते हैं और निग्रह किये हैं इन्द्रियद्वार जिनने, रत्नत्रय में सावधान है चित्त जिनका, जिनकी सर्व चेष्टा और सर्व अंगों की प्रवृत्ति समितिरूप हो गई है, अपनी जगत में विख्यातता, पूज्यता एवं भोजनादि का लाभादि नहीं चाहते, वे धन्य योगीश्वर तप के द्वारा कर्मरज को उडाते हैं/नाश करते हैं ।

  सदासुखदासजी