
सगडालएण वि तधा सत्तग्गहणेण साधिदोअत्थो ।
वररुइपओगहेदुं रुठ्ठे णंढे महापउमे॥2083॥
महापद्म मुनि पर क्रोधित हो वररुचि ने उपसर्ग किया ।
तब शकटाल मुनी ने अप्रतिकारी हो आत्मार्थ किया॥2083॥
अन्वयार्थ : वररुचि प्रयोग से अपने नन्द राजा को कुपित किया जानकर शकडाल मुनि ने भी शस्त्र ग्रहण करके भी अपनी आराधना रूप अर्थ को साधा ।
सदासुखदासजी