
भोगाणं परिसंखा सामाइयमतिहिसंविभागो य ।
पोसहविधी य सव्वो चदुरो सिक्खाउ वुत्ताओ॥2089॥
भोगों का परिमाण तथा सामायिक और अतिथि संभाग1 ।
इन संग प्रोषधोपवास ये चारों होते शिक्षाव्रत॥2089॥
अन्वयार्थ : भोगोपभोग की वांछारहित है और वर्तमान काल में जो कर्मोदय से भोगने में आती है, उनमें अति उदासीन होकर मंदराग सहित भोगता है, उनके व्रत इन्द्रों द्वारा प्रशंसायोग्य है, वह समस्त कर्म की स्थिति का छेद करता है । चेतन-अचेतन समस्त द्रव्यों में राग-द्वेष का त्याग करके साम्यभाव को धारण करके प्रात:काल और संध्याकाल में मन-वचन-काय को अविचल करके अवश्य नित्य ही सामायिक का अवलम्बन करना, वह सामायिक नाम का शिक्षाव्रत है । सामायिक करने के लिए क्षेत्रशुद्धता देखना चाहिए । जहाँ कलकलाहट के शब्द न हों, जहाँ स्त्रियों का आगमन न हो, नपुंसकों का प्रचार न हो, तिर्यंचों का संचार न हो या गीत-नृत्य-वादित्रादि के शब्दरहित, कलहविस ंवादरहित हो; जो स्थान डांस, मच्छर, मक्खी, बिच्छू, सर्पादि की बाधारहित, शीत, उष्ण, वर्षा, पवनादि के उपद्रवरहित हो - ऐसे एकान्त अपने गृह में निराला प्रोषधोपवास करने का स्थान हो या जिनमन्दिर में या नगर-ग्राम बाहर वन के मन्दिर या मठ, मकान, सूना गृह, गुफा, बाग इत्यादि बाधारहित क्षेत्र हो, वहाँ सामायिक करना । प्रात:काल, मध्याःकाल तथा संध्याकाल - इन तीनों कालों में समस्त पापक्रियाओं का त्याग करके सामायिक करते हैं । इतने कालपर्यंत मैं समस्त सावद्ययोग का त्यागी हूँ, इन कालों में भोजन-पान-वाणिज्य, सेवा, द्रव्योपार्जन के कारण लेन-देन, विकथा, आरम्भ, विसंवादादि समस्त का त्याग करके सामायिक के लिए समय दे देवें । इन कालों में अन्य कार्य का त्याग कर देता है । सामायिक के अवसर में आसन की दृढता रखें । यदि पहले स्थिर आसन का अभ्यास नहीं किया हो तो उससे लौकिक कार्य ही नहीं होंगे तो परमार्थ का कार्य कैसे बनेगा? इसलिए आसन भी अचल हो, उसके ही सामायिक होती है । सामायिक आदि का पाठ या देववन्दना या प्रतिक्रमणादि पाठ के अक्षरों में या इनके अर्थ में या अपने स्वरूप में या जिनेन्द्र प्रतिबिम्ब में या कर्म के उदयादि के स्वभाव में चित्त को लगाकर और इन्द्रियों के विषयों में प्रवृत्ति को रोककर, मन-वचन-काय की शुद्धतापूर्वक सामायिक करना तथा शीत-उष्ण, पवन की बाधा, डांस, मच्छर, मक्खी, कीडा, कीडी, बिच्छू, सर्पादि कृत आये परीषहों से चलायमान नहीं होता । दुष्ट व्यन्तर देवादि, मनुष्य, तिर्यंच और अचेतनकृत उपसर्ग को समभाव से सहता है, चलायमान नहीं होता - परिणामों में सकंपपना नहीं होता । देह जल जाये तो भी जिनके परिणाम क्षोभ को प्राप्त नहीं होते, उसे सामायिक नाम का शिक्षाव्रत होता है । जो अष्टमी, चतुर्दशी एक माह में चार पर्व में उपवास ग्रहण करता है, चार प्रकार के आहार का त्याग कर स्नान, विलेपन, आभूषण, स्त्रियों का संसर्ग, इतर, फुलेल, पुष्प, धूप, दीप, अंजन, नासिका में सूँघने का नाश , वणिज, व्यवहार, सेवा, आरम्भ, कामकथा इत्यादि का त्याग कर धर्मध्यान सहित रहकर चार प्रकार के आहार का त्याग करना, उसे प्रोषधोपवास होता है । स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षा नाम के ग्रन्थ में ऐसा कहा है - जो एक बार भोजन करता है, नीरस आहार या कांजिका करे, उसे ही प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत होता है । और जो उत्तम पात्र मुनि, मध्यम पात्र अणुव्रती गृहस्थ और जघन्य पात्र अव्रत सम्यग्दृष्टि उनको भक्तिसहित दान देता है, उसे अतिथिसंविभाग व्रत है । आहारदान, औषधदान, ज्ञानदान, वसतिकादान - ये चार प्रकार के दान देना, वह भी भक्तिपूर्वक देना । राग-द्वेष, असंयम, मद, दु:ख, भयादि जिन वस्तुओं से न हो, वह वस्तु संयमियों के लिए दान देने योग्य है । वैयावृत्त्य और दान का एक अर्थ है । तपस्वियों के शरीर की टहल करना, वह वैयावृत्त्य है तथा अरहंत भगवान की पूजन, वह अर्हद् वैयावृत्त्य है, जिनमन्दिर की उपासना करना या उपकरण, चँवर, छत्र, सिंहासन, कलशादि जिनमन्दिर के लिए देना, वह समस्त जिनमन्दिर की वैयावृत्त्य है, यही महान दान है, वह बहुत आदरपूर्वक करना । ऐसे दान के प्रकार समस्त ही वैयावृत्त्य में जानना । ऐसे संक्षेप में श्रावक के बारह व्रत कहे या इनके अतिचार कहे, वे श्रावकाचारादि ग्रन्थों में प्रसिद्ध हैं । जो इन बारह प्रकार के व्रतों को धारण करता है, वह दूसरी प्रतिमाधारी व्रती श्रावक है । क्योंकि जो सम्यग्दर्शन से शुद्ध होकर संसार, देह, भोगों से विरक्त हो, पंच परम गुरुओं की शरण ग्रहण करता है, सप्त व्यसन का त्याग करके समस्त रात्रिभोजनादि अभक्ष्य का त्याग करता है, उसे दर्शन नाम का प्रथम स्थान होता है और जो पंचाणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत - इन बारह व्रतों को धारण करे, वह व्रती श्रावक दूसरे पद/प्रतिमा का धारक है । तीनों काल साम्यभाव धारण करके सामायिक का नियम रखता है, वह सामायिक पदवी का धारक है । यह तीसरा भेद/तीसरी प्रतिमा होती है । एक-एक माह में चार-चार पर्व में जो अपनी शक्ति को छिपाये बिना प्रोषधोपवास धारण करता है, उसे चौथी प्रोषध प्रतिमा होती है । इसका विशेष विस्तार - जो सप्तमी या त्रयोदशी के दिन मध्याः पूर्व भोजन करके बाद में अपराः काल में जिनेन्द्र के मन्दिर में जाकर मध्याः सम्बन्धी क्रिया करके चार प्रकार के आहार का त्याग करके उपवास ग्रहण करके, गृह के समस्त आरम्भ का त्याग कर जिनमन्दिर में या प्रोषधोपवास के गृह में या वन के चैत्यालयों में या साधुओं के निवास में समस्त विषय-कषाय का त्याग करके सोलह प्रहर पर्यंत नियम करे, वहाँ सप्तमी-त्रयोदशी का आधा दिन धर्मध्यान, स्वाध्याय में व्यतीत करके संध्याकाल सम्बन्धी सामायिक-वन्दनादि करके रात्रि में धर्मचिन्तवन, धर्मकथा, पंच परम गुरुओं के गुणों का स्मरण आदि करके, पूर्ण करके, अष्टमी-चतुर्दशी के प्रात:काल में प्रभात सम्बन्धी क्रिया करके पूर्ण दिन को शास्त्र के अभ्यास में व्यतीत करके पुन: संध्याकाल में देववन्दना करके, रात्रि को वैसे ही धर्मध्यान में व्यतीत करके, प्रात:काल देववन्दनादि करके पश्चात् पूजनविधि करके और पात्र को भोजन कराके स्वयं पारणा करे, उसे प्रोषधोपवास होता है । यदि निरारम्भ होकर एक भी उपवास उपशान्त होकर करता है तो वह बहुत प्रकार के चिरकाल के संचित कर्म की निर्जरा लीलामात्र में करता है और जो व्यक्ति उपवास के दिन में भी आरम्भ करता है, वह केवल अपनी देह का शोषण करता है, लेकिन कर्म का लेशमात्र भी नाश नहीं करता । ऐसे प्रोषध नाम की चौथी प्रतिमा होती है । जो मूल, फल, पत्र, शाक, शाखा, पुष्प, कंद, बीज, कोंपल इत्यादि अपक्व , सचित्त नहीं खाता है, वह सचित्तत्याग नाम का पंचम स्थान/प्रतिमा है । जो अग्नि से गर्म किया हो, अग्नि में पकाया हो तथा शुष्क/सूख गया हो या आंमिली-नमक मिलाया हुआ द्रव्य तथा यन्त्र/काष्ठ, पाषाणादि के अनेक प्रकार के उपकरणों द्वारा छेदे हुए सभी द्रव्य/भोज्य सामग्री वह प्रासुक है, वह खाने योग्य है । जो त्यागी स्वयं सचित्त भोजन नहीं करता, उसे अन्य को सचित्त भोजन कराना युक्त नहीं है; क्योंकि स्वयं खाने में और खिलाने में कुछ भी अन्तर नहीं है । जो पुरुष सचित्त वस्तु का त्याग करता है, वह बहुत जीवों की दया पालन करता है और जिसने सचित्त का त्याग किया, उसने जो कायर पुरुषों से नहीं जीती जाती - ऐसी जिह्वा इन्द्रिय को जीत लिया और जिनेन्द्र के वचन का पालन भी किया । ऐसे सचित्त त्यागी का पंचम स्थान/प्रतिमा कही है । अन्न-पान-खाद्य-स्वाद्य - इन चार प्रकार के भोजन को जो रात्रि में करता नहीं, दूसरों को कराता नहीं, जो करता हो; उसकी प्रशंसा/अनुमोदना करता नहीं, उसे रात्रिभोजन त्याग नाम की छठी प्रतिमा होती है । जो रात्रिभोजन का त्याग करे और रात्रि में आरम्भ का भी त्याग करता है, वह एक वर्ष में छह महीने का उपवास करता है । यह छठवीं रात्रिभोजन त्याग प्रतिमा है । अपनी विवाहित स्त्री का भी त्याग करके स्त्री मात्र से विरक्त होकर गृह में रहता है । अपनी स्त्री से रागरूप कथा तथा पूर्व में भोगे हुए भोगों की कथा त्यागकर कोमल शय्या, आसन, विकाररूप वस्त्र-आभरण का त्याग करके स्त्रियों से भिन्न स्थान में शय्या, आसन करता है, वह ब्रह्मचर्य व्रत का पालन है । उसके ब्रह्मचर्य नाम का सातवाँ स्थान/ प्रतिमा होती है । जो सेवा, कृषि, वाणिज्य, शिल्प इत्यादि धन-उपार्जन करने के कारण तथा हिंसा के कारण आरम्भ को त्यागकर, अपने गृह में जो द्रव्य हो उसका स्त्री, पुत्र, कुटुम्ब आदि का विभाग करके और अपने योग्य का स्वयं ग्रहण करके, अन्य में ममता का त्याग कर नवीन उपार्जन का त्याग कर अपने पास के परिग्रह में संतोष रखता है । अपने पास जो द्रव्य रख लिया; उसको अन्न, वस्त्रादि भोगों में या पूजा, दान इत्यादि में व्यतीत करता है और सज्जनादि को देकर वांछारहित काल व्यतीत करता है, उसके आरम्भत्याग नाम का अष्टम स्थान/प्रतिमा होती है । यहाँ इतना विशेष जानना कि - आपने अल्प धन अपने खाने-पीने, दान, पूजादि के निमित्त रखा था, उसे कदाचित् चोर या दुष्ट राजा या हिस्से/भागीदार या कुपूत पुत्रादि हरण कर लें तो नीचे की भूमिका में नहीं आता "कि जो मेरे जीने के लिए धन रखा था, वह चला गया और नवीन उपार्जन करने का मेरे त्याग है, अब मैं क्या करूँ ? कैसे जीऊँ ? इसप्रकार अरतिभाव को प्राप्त नहीं होता । धैर्य का धारक धर्मात्मा विचारता है - यह परिग्रह दोनों लोक में दु:ख का देने वाला है, मैं अज्ञानी मोह के कारण अन्ध हुआ ग्रहण कर रखा था, अब देव ने मेरा बडा उपकार किया कि ऐसे बन्धन से सहज छूट गया ।" - ऐसा चिन्तवन करके परिग्रहत्याग की नवमीं पैडी/प्रतिमा को प्राप्त होता है, वापस आरम्भ करके परिग्रह ग्रहण में चित्त नहीं लगाता, उसके आरम्भत्याग नाम का आठवाँ स्थान होता है । जो राग-द्वेष, काम-क्रोधादि आभ्यन्तर परिग्रहों को अत्यन्त मन्द/कम करके और धन-धान्यादि परिग्रहों को अनर्थ करने वाले जानकर बाह्य परिग्रह से विरक्त होकर शीत- उष्णादि की वेदना का निवारण के लिए प्रामाणिक वस्त्र तथा पीतल-ताँबे के जल के पात्र या भोजन का एक पात्र इसके सिवाय अन्य सुवर्ण, चाँदी, वस्त्र, आभरण, शय्या, यान, वाहन, गृहादि अपने पुत्रादि को समर्पण करके अपने गृह में भोजन करते हुए भी अपनी स्त्रीपुत्रादि के ऊपर किसी भी प्रकार से उजर/याचना नहीं करता, परम संतोषी होकर धर्मध्यान में काल व्यतीत करता है, उसे परिग्रहत्याग नाम का नववाँ स्थान/प्रतिमा होती है । जो गृह के कार्य, धन उपार्जन, विवाहादि या मिष्ट भोजनादि, स्त्री-पुत्रादि के द्वारा किये गये की अनुमोदना का त्याग करता हैया कडवा, खट्टा, खारा, अलूना भोजन जो भक्षण करने में आये; उसे खारा, अलूना, बुरा-भला नहीं कहे, उसे अनुमतित्याग नाम का दसवाँ स्थान/प्रतिमा होती है । जो गृह को त्याग कर मुनियों के पास जाकर व्रत ग्रहण करता है । समस्त परिग्रहों का त्याग करके पीछी-कमंडलु ग्रहण करके एक कोपीन रखता है तथा शीतादि के परीषह निवारण करने के लिए एक वस्त्र रखता है - जिससे पूर्ण अंग नहीं ढके, ऐसा छोटा वस्त्र रखता है और अपने उद्देश्य से किया गया भोजन ग्रहण नहीं करता, समिति-गुप्तियों को पालता हुआ मुनीश्वरों के समान भिक्षा भोजन करता है, मौनपूर्वक जाकर याचनारहित, लालसारहित, रस- नीरस, कडवा-मीठा जो मिले, उसमें मलिनता रहित शुद्ध भोजन करता है, उसे उद्दिष्टत्याग नाम का ग्यारहवाँ स्थान/प्रतिमा होती है । इसप्रकार ग्यारह प्रतिमाओं का वर्णन किया । इनमें जो-जो प्रतिमा हो, वह पहले-पहले की प्रतिमाओं सहित होती हैं । इन एकादश स्थानों में से कोई प्रतिमा का धारक यदि सल्लेखना मरण करता है, वह बालपंडित मरण है ।
सदासुखदासजी