तत्तो णपुंसगित्थीवेदं हासादिछक्कपुंवेदं ।
कोधं माणं मायं लोभं च खवेदि सो कमसो॥2104॥
हास्यादिक छह नोकषाय अरु तीन वेद को करता क्षीण ।
तथा संज्वलन क्रोध मान माया अरु लोभ करे प्रक्षीण॥2104॥
अन्वयार्थ : अपूर्वकरण का उल्लंघन करके भिक्षु/मुनि अनिवृत्तिकरण गुणस्थान को प्राप्त हो छत्तीस प्रकृतियों का नाश करता है । वे छत्तीस प्रकृतियाँ कौन- सी हैं, यह कहते हैं - 1. निद्रा-निद्रा, 2. प्रचला-प्रचला, 3. स्त्यानगृद्धि, 4. नरकगति, 5. नरकगत्यानुपूर्वी, 6. स्थावर, 7. सूक्ष्म, 8. साधारण, 9. आताप, 10. उद्योत, 11. तिर्यग्गत्यानुपूर्वी, 12. एकेन्द्रिय, 13. द्वीन्द्रिय, 14. त्रीन्द्रिय, 15. चतुरिन्द्रिय, 16. तिर्यग्गति - ऐसी सोलह प्रकृतियाँ तो अनिवृत्तिकरण के प्रथम भाग में नष्ट होती हैं और अप्रत्याख्यानावरण - 1. क्रोध, 2. मान, 3. माया, 4. लोभ, प्रत्याख्यानावरण - 1. क्रोध, 2. मान, 3. माया, 4. लोभ, इन मध्य की अष्ट कषायों का द्वितीय भाग में क्षय होता है । 1. नपुंसक वेद का तृतीय भाग में क्षय करता है । चतुर्भाग में 1. स्त्रीवेद का क्षय करता है, पंचमभाग में छह नोकषायों को क्षय करता है और चार भागों में अनुक्रम से 1. पुरुषवेद, 2. संज्वलन क्रोध, 3. मान, 4. माया - इन चार प्रकृतियों का क्षय करता है । इसप्रकार अनिवृत्तिकरण के नौ भागों में छत्तीस प्रकृतियों का क्षय करता है और बादर लोभ को सूक्ष्म करता है ।

  सदासुखदासजी