
तो सो खीणकसाओ जायदि खीणासु लाेभकिट्टीसु ।
एयत्त वितक्कावीचारं तो ज्झादि सो ज्झाणं॥2106॥
सूक्ष्म लोभ कृष्टि क्षय करके पाता क्षीण मोह गुणथान ।
हो एकाग्र धरे फिर एकत्व वितर्क अविचार सुध्यान॥2106॥
अन्वयार्थ : उसके बाद सूक्ष्मकृष्टि को प्राप्त हुआ लोभ का क्षय होता है । तब सम्पूर्ण मोहनीय का क्षय करके क्षीणकषाय गुणस्थान को प्राप्त हुए जो क्षीणकषाय नामक मुनि वे एकत्ववितर्क अवीचार नामक द्वितीय शुक्लध्यान को ध्याते हैं ।
सदासुखदासजी