वीरियसमणंतरायं होइ अणंतं तधेव तस्स तदा ।
कप्पातीदस्स महामुणिस्स विग्घम्मि खीणम्मि॥2113॥
केवलि महामुनि को होता वीर्य अनन्त प्रकट तत्काल ।
विघ्नकरण जो अन्तराय है उसके क्षय से वीर्य अनन्त॥2113॥
अन्वयार्थ : ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय के क्षय होने के अनन्तर समय में त्रिकालगोचर समस्त द्रव्य-पर्याय को जानने वाला और समस्त दोषरहितपने के कारण शुद्ध ऐसा केवलज्ञान उत्पन्न होता है । कैसा है केवलज्ञान? किन्हीं पदार्थ से, किसी काल में, किसी क्षेत्र में, जो रुकता नहीं है, इसलिए अव्याबाध है । निश्चयात्मक है, इसलिए असंदिग्ध है । समस्त गुणों में उत्कृष्ट है, इसलिए उत्तम है । मतिज्ञानादि के समान संकुचित/मर्यादित नहीं है, इसलिए असंकुचित है । जिसका नाश नहीं होता, इसलिए अनिवृत्त है । अपरिपूर्ण नहीं, इसलिए सकल है । इन्द्रियादि की सहायरहित जानने में प्रवर्तता है, इसलिए उसे केवलज्ञान कहते हैं । ऐसे केवलज्ञानसहित जो सर्वज्ञ भगवान हैं, वे भूत-भविष्यत-वर्तमान पुरुषों के अनेक चित्र जिसमें लिखे/आलेखित ऐसे चित्रपट को वर्तमान काल में देखते हैं, वैसे ही समस्त त्रिकालवर्ती गुण-पर्यायोें सहित लोक-अलोक को युगपत् एक समय में विचित्र चित्रपट के समान अवलोकन करते हैं और उस ही काल में कल्पनारहित जो केवली महामुनि के विघ्न/अन्तराय कर्म का क्षय होने से समस्त अन्तराय रहित अनन्तवीर्य उत्पन्न होता है ।

  सदासुखदासजी