
दंसणणाणसमग्गो विरहदि उच्चावयं तु परिजायं ।
जोगणिरोधं पारभदि कम्मणिल्लेवणट्ठाए॥2115॥
दर्श-ज्ञान परिपूर्ण प्रभो वे धर्मवृद्धि करते विचरें ।
कर्म अघाती नाश हेतु वे योग-निरोधारम्भ करें॥2115॥
अन्वयार्थ : दर्शन-ज्ञानसहित पर्याय को पूर्ण होने तक प्रवर्तन करते हैं और आयु समाप्त होने पर कर्मनाश के लिए योगों का निरोध आरम्भ करते हैं । आयु पूर्ण हो, तब भगवान की इच्छा बिना ही पौद्गलिक योग का निरोध होता है ।
सदासुखदासजी