
मणुसाउगं च वेदेदि अजोगी होहिदूण तं कालं ।
तित्थयरणामसहिदाओ ताओ वेदेदि तित्थयरो॥2129॥
और यदि वे तीर्थंकर हों तो तीर्थंकर नाम प्रकृति ।
श्री जिनराज अयोगी होकर वेदें ये बारह प्रकृति॥2129॥
अन्वयार्थ : 1 मनुष्यगति, 2 पंचेन्द्रिय जाति, 3 पर्याप्त, 4 आदेय, 5 सुभग, 6 यशस्कीर्ति, 7 एक वेदनीय, 8 त्रस, 9 बादर, 10 उच्चगोत्र, 11 मनुष्यायु, उस समय में अयोगी/योगरहित होकर के इन ग्यारह प्रकृतियों के उदय को वेदते हैं और तीर्थंकर अयोगकेवली हों तो वे तीर्थंकर प्रकृति सहित बारह प्रकृतियों के उदय को अनुभवते हैं ।
सदासुखदासजी