देहतियबंधपरिमोक्खत्थं केवली अजोगी सो ।
उवयादि समुच्छिणाकिरियं तु झाणं अपडिवादी॥2130॥
अहो अयोगकेवली जिन तन देह त्रय से मुक्ति हेतु ।
समुच्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती चौथा शुभमय2 ध्यान धरें॥2130॥

  सदासुखदासजी