
सो तेण पंचमत्ताकालेण खवेदि चरिमज्झाणेण ।
अणुदिण्णाओ दुचरिमसमये सव्वाओ पयडीओ॥2131॥
पाँच लघु मात्रा उच्चारण काल ध्यान चौथे द्वारा ।
करें उपान्त्य समय में सर्व बहत्तर प्रकृतियों का क्षय॥2131॥
अन्वयार्थ : पश्चात् अयोगकेवली भगवान तीन देह - औदारिक, तैजस, कार्माण - इनको छोडने के लिए समुच्छिन्न क्रियाप्रतिपाति नामक शुक्लध्यान को ध्याते हैं । पंचमात्रा का उच्चारणमात्र है काल जिसका, ऐसे उस समुच्छिन्नक्रिया ध्यान से अयोगी गुणस्थान के द्विचरम समय में उदीरणा बिना समस्त कर्म की प्रकृतियों को खिपाते/क्षय करते हैं । भगवान केवली कृतकृत्य हैं, इन्हें ध्यान नहीं है । समस्त पदार्थ को उनके गुण-पर्यायों सहित एक समय में देखते हैं, उन्हें किसका ध्यान करना रहा? परन्तु आयु के अन्त में मन-वचन-काय रूप योगों का निरोध होता है और समस्त कर्म छूट जाते हैं - नष्ट हो जाते हैं, इसलिए ध्यान समान कार्य होना देखकर उपचार से ध्यान कहा है - मुख्यरूप से ध्यान नहीं है ।
सदासुखदासजी