
धम्माभावेण दु लोगग्गे पडिहम्मदे अलोगेण ।
गदिमुवकुणदि हु धम्मो जीवाणं पोग्गलाणं च॥2141॥
नहिं अलोक में धर्मद्रव्य अत एव विराजें लोकशिखर ।
गति करते जीवों पुद्गल को धर्म द्रव्य का है उपकार॥2141॥
अन्वयार्थ : आगे धर्मास्तिकाय का अभाव होने के कारण गमन नहीं होता । लोक-अलोक का विभाग धर्मास्तिकाय से ही है । जहाँ धर्मास्तिकाय नहीं, वहाँ जीव-पुद्गल का गमन नहीं, इसलिए धर्मास्तिकाय बिना आकाश अलोक कहलाता है; क्योंकि जीव-पुद्गलों का गतिरूप उपकार धर्मद्रव्य ही करता है ।
सदासुखदासजी