
कालमणंतमधम्मो पग्गहिदो ठादि गयणमोगाढो ।
सो उवकारो इट्ठो अठिदि सभावेण जीवाणं॥2146॥
काल अनन्त विराजे हैं वे नभ प्रदेश में ले अवगाह ।
अधर्मास्ति का यह उपकार स्थिति नहिं है जीव स्वभाव॥2146॥
अन्वयार्थ : जिन आकाश के प्रदेशों में अवगाह्य करके सिद्ध परमेष्ठी अनंतकाल तक तिष्ठते हैं, वह बाह्य सहकारी कारण जो अधर्मास्तिकाय उसका उपकार है; क्योंकि जीव का स्थितिस्वभाव नहीं है ।
सदासुखदासजी