अव्वाबाधं च सुहं सिद्ध जं अणुहवंति लोगग्गे ।
तस्स हु अणंत भागो इंदियसोक्खं तयं होज्ज॥2156॥
लोक शिखर पर सिद्ध भोगते जैसा अनुपम अव्याबाध ।
उसका नहीं अनन्त भाग भी वह इन्द्रिय सुख हो सकता॥2156॥
अन्वयार्थ : इस लोक में जो देवों के इन्द्र और चक्रवर्ती के शब्द-रस-रूप-गंध-स्पर्शात्मक समस्त इन्द्रियजनित उत्तम सुखों को भोगते हैं, वह सम्पूर्ण इन्द्रियजनित सुख लोक के अग्रभाग में तिष्ठने वाले सिद्ध परमेष्ठी के अव्याबाध अतीन्द्रिय सुख के अनन्तवें भाग है । यद्यपि इन्द्रियजनित सुख तो सुख हीं नहीं है, सुखाभास है, मूर्ख जीवों को सुख भासता है, ये तो वेदना का इलाज है । तृष्णा के बढाने वाले, दुर्गति को ले जानेवाले हैं । सुख तो निराकुलतालक्षण ज्ञानानन्दमय है, इसलिए इन्द्रियजनित सुख सिद्धों के सुख का अनन्तवाँ भाग भी नहीं है, दु:ख ही है, परन्तु अतीन्द्रिय सुख के अनुभवरहित मूढबुद्धि जीवों को समझाने के लिए अनन्तवें भाग कहा है ।

  सदासुखदासजी