ताणि हु रागविवागणि दुक्खपुव्वाणि चेव सोक्खाणि ।
ण हु अत्थि रागभवहत्थि दूण किं चि वि सुहं णाम॥2159॥
राग विपाकी दुःख पूर्वक ही इन्द्रिय सुख हो सकता है ।
राग भाव के बिना न जग में इन्द्रिय सुख हो सकता है॥2159॥
अन्वयार्थ : मनुष्यों और देवों के जो इन्द्रियजनित सुख हैं, वे राग के उदयरूप दु:खपूर्वक हैं । रागभाव जिसमें होता है, उसमें सुख दिखता है तथा क्षुधादि बिना भोजनादि सुख नहीं देते । गर्मी त्रास/ताप बिना शीतल पवन सुख नहीं देती । ये सांसारिक इन्द्रियजनित समस्त सुख हैं, वे दु:खपूर्वक होते हैं । रागभाव बिना और वेदना बिना नाममात्र भी सुख नहीं है ।

  सदासुखदासजी