
अणुवमममेयमक्खयममलमजरमरुजमभयमभवं च ।
एयंतियमच्चतियमव्वाबाधं सुहमजेयं॥2160॥
अनुपम अक्षय अमल अपरिमित अजर अरोग अभय भवहीन ।
सिद्ध प्रभू का सुख है एेकान्तिक आत्यन्तिक बाधाहीन॥2160॥
अन्वयार्थ : सिद्धों के सुख समान या उससे अधिक जगत में सुख नहीं, इसलिए सिद्धों का सुख अनुपम है तथा छद्मस्थों के ज्ञान द्वारा प्रमाण करने में अशक्य है, इसलिए अमेय है और प्रतिपक्षीभूत दु:ख जिसमें नहीं, अत: अक्षय है । रागादि मल के अभाव से अमल है । जरा रहितपने के कारण अजर है । रोगों के अभाव के कारण अरुज है । भय के अभाव के कारण अभय है । उत्पत्ति के अभाव से अभव है । विषयादि की सहायतारहित होने से ऐकान्तिक मात्र सुख ही है । अन्तरहितपने के कारण आत्यन्तिक है । बाधारहितपने के कारण अव्याबाध है और किसी के द्वारा बंधन में नहीं आता, अत: अजेय है । ऐसा अतीन्द्रिय सुख सिद्ध भगवान को ही होता है ।
सदासुखदासजी