
छदुमत्थदाए एत्थ दु जं बद्धं होज्ज पवयणविरुद्धं ।
सोधेंतु सुगीदत्था तं पवयणवच्छलत्ताए॥2174॥
अल्पश्रुतज्ञ अतः इसमें यदि लिखा गया आगम प्रतिकूल ।
प्रवचन वत्सलता से आगम-ज्ञाता पुरुष सुधारें भूल॥2174॥
अन्वयार्थ : यदि इस नामक ग्रन्थ में छद्मस्थपने के कारण भगवान के परमागम से विरुद्ध कथन रचा गया हो तो हे सम्यक् अर्थ के ग्रहण करनेवाले वीतरागी मुनिजन! आप परमागम में वात्सल्यभाव से शोधन करें, विरुद्ध अर्थ को दूर करके परमागम की आज्ञा के अनुकूल सम्यक् अर्थ-शब्द से शुद्ध करियेगा । यद्यपि मैंने वीतरागी सम्यग्ज्ञानी गुरुओं के चरणारविंदों के निकट आराधना सूत्रों का अर्थ अच्छी तरह से अनुभव किया है और शब्दार्थ से निर्णय करके केवल चार आराधनाओं में परम प्रीति एवं संसार के अभाव हेतु इस ग्रन्थ की रचना की है; तथापि इन्द्रियाधीन छद्मस्थ ज्ञानी से चूक हो सकती है, इसलिए सम्यग्ज्ञानी मुनिजनों से प्रार्थना की है कि श्रुतज्ञान में परम प्रीतिपूर्वक शुद्ध करो ।
सदासुखदासजी