धर्मो जीवदया गृहस्थशमिनोर्भेदाद्विधा च त्रयं
रत्नानां परमं तथा दशविधोत्कृष्टक्षमादिस्ततः ।
मोहोद्भूतविकल्पजालरहिता वागसङ्गोज्झिता
शुद्धानन्दमयात्मनः परिणतिर्धर्माख्यया गीयते ॥7॥
जीवदया है धर्म तथा, श्रावक-मुनिधर्म द्विभेद कहा ।
रत्नत्रय है परम धर्ममय, क्षमा आदि दश भेद कहा ॥
मोहोत्पन्न विकल्पजाल से, रहित तथा जो वचनातीत ।
धर्म अहो! यह आत्मदेव का, निर्मल आनन्दमय परिणाम ॥
अन्वयार्थ : समस्त जीवों पर दया करना इसी का नाम धर्म है अथवा एकदेश गृहस्थ का धर्म तथा सर्वदेश मुनियों का धर्म इस प्रकार उस धर्म के दो भी भेद हैं अथवा उत्कृष्ट रत्नत्रय सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक् चारित्र ही धर्म है अथवा उत्तमक्षमा मार्दव आर्जव आदिक दश प्रकार भी धर्म है अथवा मोह से उत्पन्न हुवे समस्त विकल्पोंकर रहित तथा जिसको वचन से निरूपण नहीं कर सकते ऐसी जो शुद्ध तथा आनन्दमय आत्मा की परिणति उसी का नाम उत्कृष्ट धर्म है इस प्रकार सामान्यतया धर्म का लक्षण तथा भेद इस श्लोक में बतलाये गये हैं