आद्या सद्व्रतसंचयस्य जननी सौख्यस्य सत्संपदां
मूलं धर्मंतरोरनश्वरपदारोहैकनिःश्रेणिका ।
कार्या सद्भिरिहाङ्गिषु प्रथमतो नित्यं दया धार्मिकैः
धिङ्नामाप्यपदयस्य तस्य च परं सर्वत्र शून्या दिशः ॥8॥
व्रतसमूह में प्रथम और, सच्चे सुख-सम्पति की जननी ।
धर्म-वृक्ष की मूल यही है, मोक्ष-महल की है सीढ़ी ॥
धर्मात्माजन सब जीवों पर, सर्वप्रथम नित दया करै ।
निर्दय का नहिं कोई जगत् में, सभी कहें धिक् है धिक् है ॥
अन्वयार्थ : जो समस्त उत्तम व्रतों के समूह में मुख्य है तथा सच्चे सुख और श्रेष्ठ संपदाओं की उत्पन्न करने वाली है और जो धर्मरूपी वृक्ष की जड़ है तथा जो मोक्षरूपी महल के अग्रभाग में चढ़ने के लिये सीढ़ी के समान है ऐसी धर्मात्मा पुरूषों को ‘‘समस्त प्राणियों पर दया’’ अवश्य करनी चाहिये किन्तु जिस पुरूष के चित्त में लेशमात्र भी दया नहीं है उस पुरूष के लिये धिक्कार है तथा समस्त दिशा उसके लिये शून्य है अर्थात् जो निर्दयी है उसका कोई भी मित्र नहीं होता।