स्वर्गायाव्रतिनाऽपि सार्द्रमनसः श्रेयस्करी केवला
सर्वप्राणिदया तया तु रहितः पापस्तपस्थोऽपि वा
तद्दानं बहु दीयतां तपसि वा चेतश्चिरं धीयतां
ध्यानं वा क्रियतां जना न सफ लं किंचिद्दयावर्जितम् ॥11॥
व्रतविहीन भी स्वर्ग-मोक्ष, पाते हैं भीगे चित वाले ।
कितना भी तप करें किन्तु, निर्दयजन पापी कहलाते ॥
चाहे कितना दान करें या, चित-एकाग्र करे तप में ।
ध्यान करें पर सफल नहीं है, कोई क्रिया न दया जिनमें ॥
अन्वयार्थ : चाहे मनुष्य अव्रती—व्रतरहित क्यों न होवे यदि उसका चित्त समस्त प्राणियों के प्राणों को किसी प्रकार दु:ख न पहुँचाना रूप दया से भीगा हुआ है तो समझना चाहिये कि उस पुरुष को वह दया स्वर्ग तथा मोक्षरूप कल्याण को देने वाली है किन्तु यदि किसी पुरुष के हृदय में दया का अंश न हो तो चाहे वह केसा भी तपस्वी क्यों न होवे तथा वह चाहे इच्छानुसार ही दान क्यों न देता हो अथवा वह कितना भी तप में चित्त को क्यों न स्थिर करता हो तथा वह कैसा भी ध्यानी क्यों न हो पापी ही समझा जाता है क्योंकि दयारहित कोई भी कार्य सफल नहीं होता॥११॥