+ मुनिधर्म के अवलम्बनस्वरूप गृहस्थधर्म किसे प्रिय नहीं? -
सन्तः सर्वसुरासुरेन्द्रमहितं मुक्ते: परं कारणं
रत्नानां दधति त्रयं त्रिभुवनप्रद्योति काये सति
वृत्तिस्तस्य यदन्नतः परमया भक्त्यार्पिताज्जायते
तेषां सद्गृहमेधिनां गुणवतां धर्मो न कस्य प्रियः ॥12॥
सर्व सुरासुरपति से पूजित, एक मुक्ति का कारण जो ।
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरणमय, करे प्रकाशित त्रिभुवन को ॥
मुनिगण धारण करें रत्नत्रय, यदि तन में स्थिरता हो ।
अन्न समर्पित करें भक्ति से, श्रावकधर्म न क्यों प्रिय हो? ॥
अन्वयार्थ : जिस सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्ररुपी रत्नत्रय की समस्त सुरेन्द्र तथा असुरेन्द्र भक्ति से पूजन करते हैं तथा जो मोक्ष का उत्कृष्ट कारण है अर्थात् जिसके बिना कदापि मुक्ति नहीं हो सकती तथा जो तीन लोक का प्रकाश करने वाला है ऐसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्ररूपी रत्नत्रय को देह की स्थिरता रहते—सन्ते ही मुनिगण धारण करते हैं तथा श्रद्धा, तुष्टि आदि गुणों कर संयुक्त गृहस्थियों के द्वारा भक्ति से दिये हुए दान से उन उत्तम मुनियों के शरीर की स्थिति रहती है इसलिये ऐसे गृहस्थों का धर्म किसको प्रिय नहीं है अर्थात् सब ही उसको प्रिय मानते हैं॥१२॥