भवनमिदमकीर्तेश्चौर्यवेश्यादिसर्व-
व्यसनपतिरशेषापन्निधिः पापबीजम्
विषमनरकमार्गेष्वग्रयायीति मत्वा
क इह विशदबुद्धिर्द्यूतमङ्गीकरोति ॥17॥
त्रिभुवन में अपयश का घर है, सब व्यसनों का स्वामी है ।
जो समस्त आपत्ति-निकेतन, सकल पाप-उत्पादक है ॥
नरकादिक दुर्गतियों में, ले जाने वाला यही अरे! ।
महा निकृष्ट द्यूत-क्रीड़ा को, कहो कौन बुध अपनाये? ॥
अन्वयार्थ : जो समस्त अपकीर्तिओं का घर है अर्थात् जिसके खेलने से संसार में अकीर्ति ही फैलती है तथा जो चोरी वेश्यागमन आदि बचे हुवे व्यसनो का स्वामी है और जो समस्त आपत्तियों का घर है तथा जिसके संबन्ध से निरंतर पाप की ही उत्पत्ति होती रहती है तथा जो समस्त नरकादिखोटी गतियों का मार्ग बतलाने वाला है ऐसे सर्वथा निकृष्ट जूआ नामक व्यसन को कौन बुद्धिमान अंगीकार कर सकता है ? अर्थात् कोई नहीं ॥१७॥