क्वाकीर्तिः क्व दरिद्रता क्व विपदः क्व क्रोधलोभादयः
चौर्यादिव्यसनं क्व च क्व नरके दुःखं मृतानां नृणाम् ।
चेतश्चेद्गुरुमोहतो न रमते द्यूते वदन्त्युन्नत-
प्रज्ञा यद्भुवि दुर्णयेषु निखिलेष्वेतद्धुरि स्मर्यते ॥18॥
मोह-शमन कर जुआ न खेलें, तो फिर अपयश नहिं होवे ।
कहाँ क्रोध-लोभादि विपत्ति, अन्य व्यसन भी कहाँ रहें? ॥
नरकादिक में नमन न होवे, क्योंकि सभी व्यसनों का मूल ।
जुआ व्यसन ही कहा अत: सब, बुधजन हों इससे प्रतिकूल ॥
अन्वयार्थ : इस जूआ के विषय में बड़े—२ गणधरादिकों का यह कथन है कि मोह के उदय में मनुष्य की जूआ में प्रवृत्ति होती है यदि मनुष्य के मोह के उपशम होने से जूआ में प्रवृत्ति न होवे तो कदापि संसार में इसकी अकीर्ति नहीं फैल सकती है और न यह दरिद्री ही बन सकता है तथा न इसको कोई प्रकार की विपत्ति घेर सकती है और इस मनुष्य के क्रोध लोभादि की भी उत्पत्ति कदापि नहीं हो सकती तथा चोरी आदि व्यसन भी इसका कुछ नहीं कर सकते और मरने पर यह नरकादि गतियों की वेदना का भी अनुभव नहीं कर सकता क्योंकि समस्तव्यसनों में जूआ ही मुख्य कहा गया है इसलिये सज्जनों को इस जूवे से अपनी प्रवृत्ति को अवश्य हटा लेना चाहिये ॥१८॥ आगे दो श्लोकों में मांस व्यसन का निषेध किया जाता है।