बीभत्सु प्राणिघातोद्भवमशुचि कृमिस्थानमश्लाघ्यमूलं
हस्तेनाक्ष्णापि शक्यं यदिह न महतां स्प्रष्टुमालोकितुं च ।
तन्मांसं भक्ष्यमेतद्वचनमपि सतां गर्हितं यस्य साक्षात्
पापं तस्यात्र पुंसो भुवि भवति कियत्का गतिर्वा न विद्मः ॥19॥
तीव्र घृणा उत्पन्न करे वह, प्राणि-घात से जो उत्पन्न ।
कृमि-स्थान अरु महा अशुचिमय, निन्दनीय मानें सज्जन ॥
छूने योग्य न, देख सकें नहिं, मांस शब्द नहिं सुनने योग्य ।
भक्षण करने वाले की नहिं, जानें क्या गति होने योग्य? ॥
अन्वयार्थ : देखते ही जो मनुष्यों को प्रबल घृणा का उत्पन्न करने वाला है तथा जिसकी उत्पत्ति दीन प्राणियों के मारने पर होती है और जो अपवित्र है तथा नाना प्रकार के दृष्टिगोचर जीवों का जो स्थान है और जिसकी समस्त सज्जन पुरूष निन्दा करते हैं तथा जिसको इस संसार में सज्जनपुरूष न हाथ से ही छू सकते हैं और न आंख से ही देख सकते हैं और ‘‘मांस खाने योग्य होता है’’ यह वचन भी सज्जनों को प्रबल घृणा का उत्पन्न करने वाला है ऐसे सर्वथा अपावन मांस को साक्षात् खाता है आचार्य कहते हैं हम नहीं जान सकते उस मनुष्य के कितने पापों का संसार में संचय होता है! तथा उसकी कौन सी गति होती है ॥१९॥