गतो ज्ञातिः कश्चिद्वहिरपि न यद्येति सहसा
शिरो हत्वा हत्वा कलुषितमना रोदिति जनः ।
परेषामुत्कृत्य प्रकटितमुखं खादति पलं
कले रे निर्विण्णा वयमिह भवच्चित्रचरितैः ॥20॥
कोई परिजन देशान्तर, जाकर यदि शीघ्र नहीं आएँ ।
तो अनिष्ट चिन्तवन करें, माथा कूट-कूट रोएँ ॥
किन्तु अन्य जीवों का मांस, भखे पर लेश न लज्जित हो ।
रे कलि! तेरे विविध चरित्रों, से यह चित्त विरक्त अहो! ॥
अन्वयार्थ : यदि कोई अपना भाई पिता पुत्र आदि दैवयोग से बाहर भी चला जावे तथा वह जल्दी लौट कर न आवे तो मनुष्य शिरकूट—२ कर रोता है तथा नाना प्रकार के मन में बुरे भावों का चिंतवन करता है किन्तु अपने कुटुम्बियों से भिन्न दूसरे जीवों के मांस को उपाट—२ कर खाता है तथा लेशमात्र भी लज्जा नहीं करता इसलिये आचार्य कहते हैं कि अरे कलिकाल तेरे नानाप्रकार के चरित्रों से हम सर्वथा विरक्त हैं, अर्थात् तेरे चरित्रों का हमको पता नहीं लग सकता ॥२०॥